कभी जलते हैं हम
संध्या होते ही
रोज़ सुलगते हैं हम
चूल्हे के संग में।
रोटियों की तरह
कभी फूल जाते हैं
कभी जलते हैं हम ।
उन्हें तो मैं खा लेता हूँ
और मुझे समय ।
यह क्रम अनवरत्
चलता रहता है ।
कभी इच्छा से तो
कभी अनिच्छा से ।
दीपक चौबे ‘अंजान’