कभी-कभी
कभी -कभी
तुम्हारा चेहरा भी
पढ़ लेता हूं
तुम्हारे अंदर के भाव
सागर सा बहे
नदी सा मैं भी
मिल लेता हूं
और मैं भी तो
सागर हो लेता हूं
लहरों के लय में
मैं भी खेल लेता हूं
मैं अपना पूरा अस्तित्व
तुममें खो देता हूं
खोने की खुशी में
खुश हो लेता हूं
तुममें ही अपनी
खुशी मान लेता हूं
सूरज की तपिश
बादल बन लेता हूं
बूंद -बूंद बन कर
फुहारों में गिरकर
धरा पे लौट लेता हूं
इस मिट्टी का
हृदय से अभिनंदन
नमन कर लेता हूं
तुम्हारे इस रुप रंग पे
मैं भी मर लेता हूं
तुम्हारा न होते हुए भी
तुम्हारा हो लेता हूं
अपने जीवन को मैं भी
धन्य कर लेता हूं
तुम्हारे श्री चरणों में
वंदना कर लेता हूं
बिना शर्त ही सही
समर्पित कर देता हूं
कभी-कभी
तुम्हारा चेहरा भी
पढ़ लेता हूं
***
रामचन्द्र दीक्षित ‘अशोक’