कभी-कभी
कभी-कभी बंजर धरती भी सोना देने लगती है
कभी-कभी काँटों में भी तो खिल जाया करते हैं फूल
कभी-कभी हम सोचते कुछ हैं, कर जाते हैं पर कुछ और
कभी-कभी अनजाने में भी हो जाया करती है भूल
कभी-कभी आहत मन का दुःख रोग निवारण ही क्या हो
अपने ही जब तंज और तानों के चुभा रहे हों शूल
कभी-कभी हम धाराओं के चलते हैं विपरीत, कभी
धाराएं हीं हो जाती हैं अपने चलने के अनुकूल
नहीं बेड़ियां काट सके हम रस्मों और रिवाजों की
सतत सनातन चला आ रहा समय हमारे ही प्रतिकूल..