कभी-कभी
कभी-कभी
ढोना पड़ती है
पृथ्वी
अपने ही कंधों पर ।
अपने लिए नहीं,
समाज की
रक्षा के लिए ।
कभी-कभी
बाँधना पड़ता है
आकाश को भी
सीमाओं में ।
क्षितिज के
सौन्दर्य के लिए नहीं ।
आत्मरक्षा के लिए।
कभी-कभी
मापना पड़ती है,
समुद्र की गहराई भी,
आत्मावलोकन या
अहंकार प्रदर्शन
कके लिए नहीं,
बल्कि जीवन के
सौंदर्य की
प्रतिष्ठा के लिए ।
कभी-कभी
वह करना पड़ता है,
जो नहीं करना चाहिए
कभी-कभी ।
कभी-कभी
वह कहना पड़ता है
जो नहीं कहना चाहिए
कभी-कभी।
कभी-कभी
वह सुनना पड़ता है
जो नहीं सुनना चाहिए
कभी-कभी ।
और,यदि वह
न किया जाए
या न कहा जाए
या न सुना जाए , तो
आगे हम
कह ही नहीं सकते
कभी-कभी ।