कभी कभी सोचता हूँ मैं ….
अगर मैं पक्षी होता ,
लम्बी उड़ान गगन की ओर भरता,
दिन भर धरा से ऊपर उठकर,
शाम को अपने आशियाने में होता ।
कभी – कभी सोचता हूँ मैं ……
अगर मैं नीर होता ,
हिमशिखरों का आलिंगन करता ,
मूक शिलाओं का स्पर्श करके ,
जीवमात्र को तृप्त करता,
कभी – कभी सोचता हूँ मैं …..
अगर मैं पुष्प होता,
प्रतिदिन खिलता और महकता,
मांगलिक सुअवसरों पर छटा बिखेरता ,
मुझसे मिलने नित भँवरे आते,
और उनसे मधुर संगीत मैं सुनता ।
कभी – कभी सोचता हूँ मैं …
अगर मैं कोई जन्तु होता,
अपने समूह का हिस्सा होता ,
स्वतन्त्र होकर विचरण करता,
न होती रोटी-कपड़ा-मकान की चिंता,
धर्म जाति में कभी न पिसता,
कभी कभी सोचता हूँ मैं….
अगर मैं मेघ होता,
कालिदास के काव्य में होता,
बेफिक्र होकर नभ में टहलता ,
नदि तालाबों से वाष्प बनकर ,
सूखी धरती पर बरस जाता,
कभी कभी सोचता हूँ मैं….
अगर मैं वृक्ष होता,
राही को अपने आँचल में छाँव देता,
मेरी शाखाओं में पक्षियों के आशियाने होते ,
और अपनी बाहों में बैठाकर उन्हें ममत्व प्रदान करता ।
कभी कभी सोचता हूँ मैं…
फिर सोचता हूँ..
अगर मैं इंसान ही होता,
सारी प्रकृति मेरी ,
और मैं प्रकृति का होता,
ये सब बनने की चाह में ,
मैं इंसान बनकर ही पा लेता ।
बस..यही सब कभी कभी सोचता हूँ मैं ….
©®- अमित नैथानी ‘मिट्ठू’ ( अनभिज्ञ )