कभी-कभी यूँ भी
कभी-कभी यूँ भी दिल को समझाना पड़ता है
जख्म छुपाकर सीने में मुस्काना पड़ता है
जब से आँखों में चाहत के ख्वाब सुनहरे जागे हैं
आईने से भी अब उनको नजर चुराना पड़ता है
सांसों में घुलती रहती हैं उसके जिस्म की खुशबू क्यों
शायद यहीं-कहीं पर उसका ठौर-ठिकाना पड़ता है
कुछ गलियाँ जब बीच सफ़र में अपनी लगने लगती हैं
तब चलते-चलते अक्सर रुक जाना पड़ता है
बिन बाधा आगे बढ़ने की बातें सोच रहे हो क्यों
आगे बढ़ने की खातिर ठोकर भी खाना पड़ता हैं
चुभते हैं कांटे भी अक्सर नाजुक सी पंखुड़ियों में
पर डाली पर फूलों को इठलाना पड़ता है
रामराज में बचपन भी लगता है बोझ सरीखा अब
साँसें मिलते ही इनको भी टैक्स चुकाना पड़ता है