कभी कभी मेरे दिल मे…।
कभी कभी…।
कभी कभी मेरे दिल मे खयाल आता है..।।
कि जिंदगी इतनी वीरान नही होती,
गर तू मेरे साथ होती तू मेरे पास होती…।
कभी मै तुझे सहेजता..
कभी तुझे थोड़ा समेटता…।
रहती तू बनकर मेरी हरपल और….
रखता तुझे अपने आगोश मे हरदम.।
हाँ तुम होती तो जिंदगी कुछ और होती..।
मगर ऐसा हो न सका…।
मगर ऐसा हो न सका…
तू मुझसे उतनी हीं दूर भागती रही,
जितना मै तेरे पीछे भागता रहा…।
तू उतने ही तेजी से निकलती गई,
जितना तुझे मै सहेजता रहा..।
कभी कभी…..
कभी कभी मेरे दिल मे ये खयाल आता है..।
कि यें आँखें भी चैन की निंद सो पाती,
अगर इनमे तेरे ख्वाब न पलतें….।
तू मेरे साथ चलती, मै तेरे साथ चलता…।
कभी तुम मेरे किताबों मे होती तो,
कभी तकिया बन मेरे कमरे मे मेरे साथ होती….।
मगर ऐसा हो न सका..।
मगर ऐसा हो न सका..,
तू कभी मेरी हो न सकी,
तुझको पाने के मेरे ख्वाब सिर्फ,
एक ख्वाब बन कर रह गयें…..।
कभी कभी…मगर,
आज फिर आई हो तुम एक नई ख्वाब बनकर,
नये रुप नये रंग मे सज धजकर कर,
एक नयी योवना सा रूप लेकर…।
अब आ हीं गई हो तुम जब..
नई गुलाबी रंगों मे रंगकर…।
तुझको पाने की तमन्ना फिर से..
दिल मे जाग उठी है….।
अगर हो जाए ऐसा और तू हो जाए मेरी,
तो फिर से अपने ख्वाबों मे मै भी नये रंग भर लूं..।
कर लूं पुरे उन सारे अधूरे ख्वाबों को,
जो तेरे बिना पुरे ना कर सका..।
जी लूँ हर उन ख्वाहिशों को फिर से.।
जो तेरे रहते पहले जी न सका…।
कभी कभी …
कभी कभी मेरे दिल मे ख्याल आता है .।
तू होती तो क्या क्या होता…?
हाँ यही सोचता हूँ हरपल…।
तू होती तो मिटाता भूख उन बच्चों का,
जो भुखे प्यासे दो निवाले के लिए तरसती आँखो से,
इंतजार करते रहतें है हरपल घर के चौमुहाने पर…।
ले आता कुछ फल और दवाईयाँ मै बूढे माँ-बाप के
लिए जों इस उम्र मे सिर्फ उनपर पर हीं हैं निर्भर हैं…।
खरीदता हर कोरे सपनों को गृहनी के,
और पुरी करता उसके हर उन ख्वाहिशों को,
जो अधूरी अधूरी सी रहती है…
फिर भी मूह से कुछ नही कहती…।
कभी कभी…,
मेरे दिल मे ये ख्याल आता है.
मगर फिर सोचता हूँ..?
कि तू तो ठहरी एक मृगतृष्णा तू कहाँ किसी की हो पाई है…?
कल तक जो थी तू हजार-पाँच सौ के रूप मे,
आज दो हजार बन कर सामने आई है…।
हाँ आज दो हजार बन कर तू सामने आई है.।
मगर फिर भी कभी कभी मेरे दिल मे ख्याल आता है…,
तू अगर मेरी होती तो जिंदगी कुछ और होती..।
शायद बड़ी हसीन होती.।
शायद बड़ी हसीन होती.।
विनोद सिन्हा- “सुदामा”