कब ?
शहर सूना- सूना सा है , गली कूचे भी वीरान रहते है ,
शजर उदास है , चिड़ियों के चहचहे भी गुमसुम रहते हैं ,
हर शख्स सहमा -सहमा सा है , हर तरफ खौफ़ के सन्नाटे रहते हैं ,
गली के कुत्ते भी अब भौंकते नहीं , चुपचाप ही रहते हैं,
किसी दूर के घर से आती सिसकियां , कुछ गुज़रे सानेहा सा एहसास देते रहते है ,
हर शख़्स एक दूसरे से घबराया , कश्मकश में डूबा सा रहता है ,
अपनी सलामती की फ़िक्र में डूबा , परेश़ाँ सा हर कोई रहता है ,
खुदा जाने ; ये कैसा अजीब सा कहर बरपा है ,
जब इंसां ; उधार की सांसो के लिए तड़पा है ,
इस कोशिश में ; उसकी सांसों की डोर टूट ना जाए ,
कहीं वक्त से पहले ; उससे ज़िंदगी रूठ ना जाए ,
उस पर ,
नेक नीयत के पर्दे में ,खुदगर्ज़ नज़र आते हैं ,
ज़िंदगी के सौदागर , कमज़र्फ नज़र आते हैं ,
न जाने कब तलक ; ये अलम की लहर चलेगी ,
ये बेब़सी खत्म हो ; ख़ुशगवार सब़ा कब महकेगी ?