कब से ढूंढ रही
आधा धंटा हो गया,
ढूँढते देखते
न मिला,
गैस के नीचे,इधर उधर ,
डब्बे सब हटा हटा ,
देखा जहाँ न सोच सकते
मंदिर में,टेबल पर
दादी के पास ,न कमरे में,
फ्रिज में भी देख आई ,
झुक झुक कर भी धर भर में
वह नही मिला।
पौना धंटा चला गया जब
दाल ही चढ़ा आई
सब्जी बने तो रोटी सेकूं
फिर तैयार होकर जाऊं भागूं
देर हुई जहाँ जल्दी था जाना
पर फिर भी वह न मिला।
जब चाय ही बनने लगी
जो अब तक थी न बन सकी
सोफा पर बैठ चुस्की जो लेने लगी
हाथ का बिस्कुट गिर पड़ा जैसे ही,
उठाने को जो नीचे देखा
पड़ा था सोफे के नीचे
देख रहा था मुझे
मेरी “”रसोईघर का चाकू””।।।
आज ही सुबह 6बजे जब मेरे साथ एसा हुआ,जो पहले भी कई बार हो चुका था,
तब मुझे एहसास हुआ कि एक छोटी सी वसतु भी आपकी दिनचर्या को बदल देती है और अपनी अहमियत ऐसे बताती है।
हमारे जीवन में भी यही होता है ।
आरती गुप्ता ।