कतहुं नहिं देखलहुँ…
कतहुं नहिं देखलहुँ…
कतहुं नहिं देखलहुँ,
दूर गगन सऽ पार क्षितिज तक,
हुनका नहिं पयलहुँ ।
भयाकुल भ सगरो हम खोजिलहुँ ,
पोछा कऽ घर-दुआर सजाकऽ ,
फूल-प्रसाद आओर अछिंजल चढ़ेलहुँ,
पर कतहुँ अहां दरस नहीं देयलहुँ।
खेत खलिहान मऽ बाग बगान मऽ ,
पोखरि मसान आ पैघ दलान मऽ ,
नजरि गड़ेने बाट निहारलहुँ ।
शोक संताप से त्रस्त भऽ खोजल ,
कतउ अहां के पदचिन्हों नेऽ पयलहुँ।
मंदिर चारूधाम तीरथ हम गयलहुँ,
अधीर मन के कतेक तड़पाएब,
साँझ भिनसर सुमिरन हम कयलहुँ ।
जप-तप-ध्यान में हिय उलझा कऽ,
कोनो ठाम दरसन नहिं पयलहुँ।
एक राति सपन में देखलहुँ,
स्वप्न में आबिकऽ कहलैथ गिरधारी ,
अन्तर्मन में खोजऽ तू हमरा।
काम,क्रोध,मद लोभ मिटा कऽ,
प्रेमभक्ति में लिन भऽ निशिदिनि,
पायब सदिखन हिरदय में हमरा।
आनन्द अपार ब्रह्मांड रचाएल,
कण- कण में आनंद समाएल,
चिंता-द्वेष जे छोड़ि कऽ आयल,
नहिं जगत में मन भरमाएल।
नजरि में आयब हम बस तकरा ,
अधनठ मनुक्खे पूजय ककरा ।
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – १४ /११ /२०२१
मोबाइल न. – 8757227201