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15 Jun 2017 · 1 min read

“कतरा कतरा पिघली हूँ”

“कतरा कतरा पिघली हूँ”(2×15)
यादों की जलती लाशों पर मैंने हर इक सर्द लिखा
कतरा-कतरा पिघली हूँ तब जाकर मैंने दर्द लिखा।

आँखों से बरसा कर सावन कितने सागर खार किए
अश्कों से भीगा क़ागज़ तब पीड़ा को हमदर्द लिखा।

अरमानों की बलिवेदी पर अहसासों की भेंट चढ़ी
तड़प गया हर रोआँ तन का मैंने दहशतगर्द लिखा।

यादें तेरी दिल में अपने कितने पतझड़ पाली हैं
शाखा से जब पत्र गिरा तब जाकर मैंने ज़र्द लिखा।

खेली होली जज़्बातों से लाल लहू का घूँट पिला
दीप जलाया जिसने घर में उसको सच्चा मर्द लिखा।

तोड़ सका ना पत्थर दिल तू शीशे जैसा मन मेरा
आज वफ़ा की कश्ती चढ़ “रजनी” ने खुद को बर्द लिखा।

डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
संपादिका-साहित्य धरोहर
महमूरगंज, वाराणसी (मो.- 9839664017)

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