कड़वे घूँट से रू-ब-रू कराती शा’इरी
संकलनकर्ता: महावीर उत्तरांचली
(1)
मीठा-मीठा झूठ यहाॅं चखते-चखते यह हाल हुआ
कड़वी-कड़वी-सी लगती है अब सच्चाई डाकिए
—रमेश प्रसून
(2)
मरीज़-ए-ख़्वाब को तो अब शिफ़ा है
मगर दुनिया बड़ी कड़वी दवा थी
—जावेद अख़्तर
(3)
सुलग रहा है कहीं दूर दर्द का जंगल
जो आसमान पे कड़वा धुआँ बिखरने लगा
—पी पी श्रीवास्तव रिंद
(4)
ये कड़वा सच है यारों मुफ़्लिसी का
यहाँ हर आँख में हैं टूटे सपने
—महावीर उत्तरांचली
(5)
महव-ए-ख़िराम-ए-नाज़ है कोई
ज़ुल्फ़ों में कड़वा तेल लगाए
—शौक़ बहराइची
(6)
समर किसी का हो शीरीं कि ज़हर से कड़वा
मुझे हैं जान से प्यारे सभी शजर अपने
—रासिख़ इरफ़ानी
(7)
फेंकना तुम सोच कर लफ़्ज़ों का ये कड़वा गुलाल
फैल जाता है कभी सदियों पे भी इक पल का रंग
—क़तील शिफ़ाई
(8)
लहू का ज़ाइक़ा कड़वा सा लग रहा है मुझे
मैं चाहता हूँ कि कुछ तो मिठास रस में रहे
—ज़मान कंजाही
(9)
रखो नोक-ए-ज़बाँ पर भर के उँगली ख़ून से मेरे
ये मीठा है कि कड़वा टुक तो इस का ज़ाइक़ा चक्खो
—मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
(10)
मुझे भी नीम के जैसा न कर दे
कि तल्ख़ी ज़ीस्त की कड़वा न कर दे
—तनवीर गौहर
(11)
शकर-लब कहा मैं ने कड़वे हुए तुम
अबस मुँह को मुझ से सितमगर बनाया
—रिन्द लखनवी
(12)
एक कड़वी हक़ीक़त कहें और कहें
शहद से भी सिवा चाशनी मौत है
—सय्यद मोहम्मद असकरी आरिफ़
(13)
कड़वे धरे हुए हैं जो नव्वाब के हुज़ूर
बाहर है अपने जामे से ऐ बाग़बाँ बसंत
—मुनीर शिकोहाबादी
(14)
किन लफ़्ज़ों में इतनी कड़वी इतनी कसीली बात लिखूँ
शे’र की मैं तहज़ीब बना हूँ या अपने हालात लिखूँ
—जावेद अख़्तर
(15)
चंद सुहाने मंज़र कुछ कड़वी यादें
आख़िर ‘अम्बर’ का भी क़िस्सा पाक हुआ
—अम्बर बहराईची
(16)
वो शीरीं-लब की कड़वे बोल अमृत हैं मिरे हक़ में
तुझे मालूम क्या है लज़्ज़त-ए-दुश्नाम ऐ वाइ’ज़
—सिराज औरंगाबादी
(17)
‘मंज़र’ मीठी बातें भी तो करता है
कड़वे बोल सुना जाता है बाज़ औक़ात
—मंज़र नक़वी
(18)
शहरी भँवरे से कहना ऐ बाद-ए-सबा
नीम के पत्ते गाँव में अब भी कड़वे हैं
—उनवान चिश्ती
(19)
आँखों की तरह दिल भी बराबर रहे कड़वे
इन तंग मकानों में धुआँ जम सा गया है
—सज्जाद बाबर
(20)
नर्म लफ़्ज़ों में हो ज़िक्र-ए-बेगानगी
बात कड़वी कहो चाशनी घोल कर
—शाहिद मीर
(21)
मीठे लोगों से मिल कर हम ने जाना
तीखे कड़वे अक्सर सच्चे होते हैं
—प्रताप सोमवंशी
(22)
घी मिस्री भी भेज कभी अख़बारों में
कई दिनों से चाय है कड़वी या अल्लाह
—निदा फ़ाज़ली
(23)
‘फ़य्याज़’ तू नया है न पी बात मान ले
कड़वी बहुत शराब है पानी मिला के पी
—फ़य्याज़ हाशमी
(24)
इक पल मिलाप फिर कड़े कड़वे कठिन वियोग
मक़्सद था बस यही तिरे मेरे ज़ुहूर का
—नासिर शहज़ाद
(25)
सब उम्मीदों के पीछे मायूसी है
तोड़ो ये बादाम भी कड़वे निकलेंगे
—शकील जमाली
(26)
वक़्त की बात है प्यारे चाहे मान न मान
मीठा कड़वा सब सुनना पड़ जाता है
—रियाज़ मजीद
(27)
शिकस्त-ए-ख़्वाब का आलम न पूछो
बड़ी कड़वी हक़ीक़त सामने थी
—मोहसिन ज़ैदी
(28)
ये क्या समझ के कड़वे होते हैं आप हम से
पी जाएगा किसी को शर्बत नहीं है कोई
—हैदर अली आतिश
(29)
सुना करो सुब्ह ओ शाम कड़वी कसीली बातें
कि अब यही ज़ाइक़े ज़बानों में रह गए हैं
—ज़फ़र इक़बाल
(30)
चाहे जितना शहद पिला दो शाख़ों को
नीम के पत्ते फिर भी कड़वे निकलेंगे
—तारिक़ क़मर
(31)
वाइ’ज़ की कड़वी बातों को कब ध्यान में अपने लाते हैं
ये रिंद-ए-बला-नोश ऐसे हैं सुनते हैं और पी जाते हैं
—अंजुम मानपुरी
(32)
इस वक़्त हम से पूछ न ग़म रोज़गार के
हम से हर एक घूँट को कड़वा किया न जाए
—जाँ निसार अख़्तर
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(साभार, संदर्भ: ‘कविताकोश’; ‘रेख़्ता’; ‘स्वर्गविभा’; ‘प्रतिलिपि’; ‘साहित्यकुंज’ आदि हिंदी वेबसाइट्स।)