कड़वा सच
क्या विचित्र दुनिया है ये
किसी को भोजन भी
नसीब नहीं और कहीं पर
हो रही है पैसों की बरसात।।
कोई धरा का टुकड़ा
बरसों से प्यासा है
और कहीं पर रुक
नहीं रही है बरसात।।
कोई तरस रहा है कि
होते उसके भी मां बाप
किसी ने वृद्धाश्रम में
छोड़ दिए है मां बाप।।
किसी के पैरों में नहीं
पहनने को जूते भी
कोई बहुतों की किस्मत
बदल रहा अपने बूते भी।।
कोई आतंकी बन
अपनो को ही मार रहा
कोई अस्पतालों में
गैरों की जान बचा रहा।।
कोई सांसों को
धुएं में उड़ा रहा है
कोई सांसों के लिए
पल पल तड़प रहा है।।
कोई अस्पतालों में पड़ा
जीने की कोशिश कर रहा
और कोई अमूल्य जीवन
को स्वयं ही खत्म कर रहा।।