कटु सच्चाई तुम्हें दिखाऊँ
बड़े अचरज की सुनो तुम्हें
आज इक बात बताऊं
सुनना जरा ध्यान से
कटु सच्चाई तुम्हें दिखाऊँ
सब्जी लेने आज अनमनी सी
थैला लेकर पहुंची बाजार
हैरां ही मैं रह गयी
एक रेहड़ी का दृश्य निहार
रख रखे थे उस भाई ने
बैंगन सभी किस्म के छांट
रंग,आकार और प्रकार के
भिन्न भिन्न कारणों में बांट
देखकर ये नजर एकबार तो लगा
मन को दृश्य बड़ा ही मनोहारी
तुरन्त ही सारे प्रकार के थोड़े थोड़े
खरीदने की कर ली मैंने तैयारी
भाई भी तोल रहा था सबको
करके सबके गुणों के बखान
और बता रहा था देखो बहना
कैसा है ये कुदरत का विधान
उसकी बातें सुनकर एकदम से
मन मेरे कौंधा इक गहन विचार
स्वार्थ सारा स्वार्थी इंसान का और
कुदरत पर दिया सारा भार उतार
अब जब देखा मैंने उस रेहड़ी पर
पड़े बैंगनों की अलग अलग किस्मों को
लगा जैसे रंग जाति और धर्म के
नाम पर बांट रखा है इंसानी जिस्मों को
रेहड़ी पर बंटे अलग अलग पड़े वो
कई किस्मों के बैंगन मुझे लगे चिढ़ाने
बिन बोले ही सब कुछ वो कह गए
लगा गए मेरी खोई अक्ल ठिकाने
बाँट छाँट कर रखे उन बैंगनों में दिख
रही थी मुझे अब शक्लें इंसान की
बाँट रखी हैं खुद ही जिन्होंने जाने क्यों कितनी ही किस्में अपने धर्म ईमान की
एक ही जाति के हैं वो सारे बैंगन
एक ही जाति के हम सब इंसान हैं
होगा दोनों का अंत एक सा, एक का बनना भर्ता तो एक ने जाना श्मशान है
फिर काहे का सारा ये ताम झाम है
किसने रचा ये झूठे ढोंग का विधान है
किसने बनाई ये धोखे की ये दूकान है
फरेब से जो बेच रहा अपना समान है।
दीपाली कालरा