“कचहरी “
भले डॉट घर में तुम बीवी की खाना,
मगर भूल कर तुम कचहरी न जाना।
कचहरी हमारी तुम्हारी नहीं है,
कचहरी किसी की रिश्तेदारी नहीं है।
भले जैसे – तैसे गृहस्थी चलाना।
मगर भूल कर तुम कचहरी हो जाना।
कचहरी वकीलों की थाली है भैया,
वकीलों की छोटी साली है भैया।
सरेआम कातिल यहां घूमते हैं,
दरोगा सिपाही कदम चूमते हैं।
कचहरी का मारा कचहरी में भागा,
कचहरी में सोया कचहरी में जागा।
बासी मुंह है घर से बुलाती कचहरी,
बुलाकर दिन भर रुलाती कचहरी।
भला आदमी किस तरह से फंसा है,
कटघरे में जाकर मुवक्किल खड़ा है।
कचहरी तो बेवा के तन देखती है ,
कहां से खुलेगी बटन देखती है।
✍️ श्लोक”उमंग”✍️