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26 Nov 2022 · 1 min read

कंपकंपी

ठिठुर-ठिठुर रहते
घर के अन्दर हम
कम्बल के अन्दर
चिपके-चिपके हम
देखो पानी भी ठंडा
ये भोजन भी ठंडा
करंट-सी लगती
ऊंगली में, तन में
अंगीठी को पकड़
खुद को गर्म करते
सुबह-सुबह नहाने से
डरते भी, बचते हैं हम
दुबूक-दुबूक रहते
मोटे-मोटे कपड़ों में
ऊपर सर पे टोपी लगा
नीचे पैरों में जूता पहन
शरीर को कंपकंपी से
खुद को बचाते हम।

वरुण सिंह गौतम
रतनपुर बेगूसराय

Language: Hindi
Tag: Poem
1 Like · 191 Views
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