कंटकों के मार्ग पे चल (नवगीत)
नवगीत –17
वंचनाओं
को मिला पथ
दो दिनों का हर्ष बोता ।
कंटकों के
मार्ग पे चल
गुण दुःखी आँसू सँजोता ।
जिंदगी की
दौड़ में सब
बीत जाता वक्त सारा
क्या पता
किसको खबर है ?
कौन जीता कौन हारा ?
दाँव पर
तूने लगायी
उम्र की वो चंद साँसे
मंज़िलें
तुमको मिली क्या ?
वक्त भी तो है विजेता ।
स्वप्न की
बैसाखियों पर
जिंदगी किसके सहारे ?
कीकरों के
पेड़ से
हो गए सम्बन्ध सारे
भौतिकता के
हवस की
अग्नि फैली है निलय तक
ईर्ष्या
जलने न पायी
आँसुओं से कौन रोता ?
न्याय पथ
है दूर किंचित
लक्ष्य भी ओझल क्षितिज पर
ज्ञान का
दीपक जला चल
बाँध ले सम्बल कमर पर
धैर्य रख
तू है प्रवर्तक
रात ठहरी तो हुआ क्या ?
झूठ की
है उम्र कितनी ?
और सच बूढ़ा न होता ।
रकमिश सुल्तानपुरी