औलाद परिन्दों जैसी है
**** औलाद परिन्दों जैसी है ***
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औलाद हो गई परिन्दों के जैसी है,
बड़े हो कर उड़ जाती ही वैसी है।
स्वप्न पूर्ण बच्चों के ही करते करते,
माँ बाप की होती ऐसी की तैसी है।
अंगुली पकड़ के चलना सिखाया,
छोड़ जाती संताने हो गई कैसी है।
जवानी में कमा कर सदा खिलाया,
बुढ़ापे में होती नहीं कभी हितैषी हैं।
मन्दिर ,गुरूद्वारों में रहे सेवा करते,
माता पिता के लिए दरिंदों जैसे है।
मनसीरत पीढ़ी को कैसे सिखलाए,
संस्कार मिटते कच्ची मिट्टी जैसे है।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)