… और मैं भाग गया
मुझे
एक बार
एक कवि गोष्ठी में पहुँचने का
आमंत्रण मिला
मैं नया-नया कवि था
इसलिए दिल बल्लियों उछला
मन-कमल खिला
निर्धारित समय पर पहुँचा
तो सज रहा था गेट
गोष्ठी प्रारंभ हुई
पूरे पाँच घंटे लेट
संचालन वे कर रहे थे
हम जिनके अनुबंधक थे
जिस विद्यालय में गोष्ठी थी
उसी के प्रबंधक थे
जो भी इच्छा होती थी
बक देते थे
बोलने से पहले
बुद्धि का ढक्कन तो
बिल्कुल ही ढक देते थे
उनको अपने आप पर
इतना था गुमान
कभी रखा ही नहीं
समय या किसी और का ध्यान
जब भी मुँह खोलते थे
नानस्टॉप बोलते थे
उनके पास समस्याओं कि लड़ी थी
कुतर्कों की झड़ी थी
वे अकड़ में तने हुए थे
चर्चा तो समस्याओं की ही कर रहे थे
मगर खुद एक समस्या बने हुए थे
जब त्रस्त अध्यक्ष महोदय ने
उन्हें समझाया
तो उनको और भी ताव आया
फिर मुँह खोले
ऐंठ कर बोले―
हम अपने आप में निरे हैं
जिनको-जिनको जाना हो तो जाएँ
बिल्कुल नहीं घिरे हैं
कविगण उद्घोषक का आशय ताड़ गए
अपना-अपना झोला उठाए
घर सिधार गए
परंतु मैं बैठा रहा
क्योंकि शिक्षा दी थी नानी
जब तक डूबने की नौबत ना आ जाए
साधते रहो पानी
समय गुजरता गया
एक-एक कर श्रोता भी गुजरने लगे
वक्ता महोदय अपने उल्टे सीधे तर्कों से
अजीब तथ्य गढ़ने लगे
जो श्रोताओं को बिल्कुल ही नहीं भाई
और जमकर प्रतिक्रिया जताई
श्रोता सीटी बजाने लगे
स्टेज पर बैगन टमाटर आने लगे
और तब मैं समझा कि श्रोता जाग गया
और इससे पहले कि जूतम-पैजार हो
मैं भी अपना झोला उठाया
और भाग गया।