. . . और मेरी इक गज़ल
उस बेख़बर को अब ये ख़बर नहीं हैं ।
इस बेसबर को ज़िने में सबर नहीं हैं ।
झुठ के कितने ही परदे गिराये हमने ,
परदें बोले , तेरा नाम अकबर नहीं हैं ।
ज़िंदगी को बेहिसाब , बेपनाह प्यार किया ;
मौत भी बोली , क्यां तु मेरा दिलबर नहीं हैं ?
कोई उनसे पुँछे की , अश्क कहाँ बहायेगी ?
मेरा कफ़न , ज़नाज़ा , या तो कबर नहीं हैं ।
साथ का वादा , हाथ देने की कसम ख़ाई थी ;
अब कहती , हाथ हैं मेरा , रबर नहीं हैं ।
ख़ुश तो होती थी , तारे तोड़ लाने की बात से ;
अब समझाती हैं की , तेरा अंबर नहीं हैं ।
बरसों ख़ड़े रहें उनके प्रेमी कतार में ,
वक्त ने ज़ताया , अब तेरा नंबर नहीं हैं ।
हमारी कलम अब , कैसें – क्यां कहेगी उसे ?
उसके घर में तो आता अख़बार नहीं हैं ।
– शायर : प्रदिपकुमार साख़रे
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