. . . और भी इक मेरी गज़ल
झुठी – फ़रेबी तारिफ़ों से ख़ुश वो होने लगी ।
अंज़ाने , मुझसे शेरे – गज़ल वो पिरोने लगी ।
वफ़ा की सारी की सारी फ़सलें काटी उसने ,
फ़िर से बेवफ़ाई के बिज़ तो वो बोने लगी ।
मेरे ख़ुन का इल्ज़ाम कैसें आयें उस पर ?
ख़ुन से रंगी हथेली अश्कों से वो धोने लगी ।
कैसें याद दिलाये वो वादें , यादें , फ़रयादें ?
लगता हैं , दोबारा याददाश वो ख़ोने लगी ।
मुझे मारके , मेरी आँख़ें तो ख़ोल दी उसने ;
और ख़ुद सारी रात चैन से वो सोने लगी ।
गैरों पे तो बरसी प्यार की बारिश बनके ,
और मुझे ज़लते अश्कों से वो भिगोने लगी ।
उसने उसे दिल , मंज़िल , साहिल पे छोड़ा ;
और मज़धार में मेरी कश्ती वो ड़ुबोने लगी ।
– शायर : प्रदिपकुमार साख़रे
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