औरत
औरत —-(विधा- छंदमुक्त स्वतंत्र)
कैसे?औरत का घर के हर, कोने कोने में बसता है जीव।
ख्वाबों की शालो को जीवन भर, उधेङता बुनता है जीव।
एक कन्या से यौवना के सफर में, जब बदलता है जीव।
खुशियों को गिरवी रख, रिश्तों की किश्तें चुकाता है जीव।
बच्चों के छोटे होते कपङों के ढेर में, यादों का अक्स लिये,
चौखट के पायदान या दरी के पैबंद में भी बसता है जीव।
फटी हुई चद्दरों की गद्दियां बनाकर,सुई से टांके टुमके दिये।
कतरा कतरा तिनकों को जोङने में, जुङता बनता है जीव।
देखो, औरत का घर के कोने कोने में कैसें बसता है जीव?
अपने हिस्से के हाशिये को खाली रख, औरो को रंग दिये,
ताउम्र कई किरदारों में कैद, भूमिकाऐं निभाता है जीव।
चौखट से अहाते ,दुआओं, अभिलाषाओं की गठरी लिये
तुलसी के क्यारे में विश्वास का दीपक जलाता है जीव।
देखो, औरत का घर के कोने कोने में कैसें बसता है जीव?
सूरज को हथेली पर, चांद को पानी के थाल में लिये,
नागफनी पर भी संभावनाओं के, फूल खिलाता है जीव।
जला कर लाल मिर्ची को, बुरी नजर से बचाने के लिये,
आशंकाओं के बवंडर पर काला टीका लगाता है ये जीव।
देखो, औरत का घर के कोने कोने में कैसें बसता है जीव?
ख्वाबों की शालो को जीवन भर उधेङता बुनता है जीव।
——– डा. निशा माथुर (स्वरचित)