औरत तो माचिस की छोटी तीली है, जो बेवक्त अंगारे बना दी जाती है !
यहाँ न आती
माँ-बाबा की
‘पढ़ने बैठो’ की आवाज़ें,
न भैया की डाँट,
न छोटे भाई-बहन का प्यार,
अचीन्हीं यहाँ की
घर की दीवार भी ।
न यहाँ आँगन में
खटर-पटर,
कैसे हम खेला करते थे
संग-संग,
गुल्ली-कबड्डी,
खो-खो और अन्य रंग ।
बाबा की अँगुली थाम बढ़ी,
माँ की आँचल बनी सौगात,
कैसे माचिस की
तीली-सी छोटी थी,
क्यों बेवक्त अँगारे बन गयी
या बना दी गयी ।