औरत के अंदर एक औरत थी
औरत के अंदर एक औरत थी
डरी हुई सहमी सी
वो लिखती आग थी
बोलने से डरती थी
इस लिए वो चुप ही रहती थी
उसे और डराया गया
उसे कस के धमकाया गया
उसे उसकी जात बताई गई
उसे बताया गया कि औरतें
बिना मर्दों के कुछ नही होती
उसे समझया गया कि
जहां वो होतीं हैं, वहां कुछ नही होती
वो जड़ बिहीन अमरबेल होती हैं
पुरुषों के छाया में पोषित होती हैं
रस चूस चूस कर शीर्ष तक पहुंचती है
जब उसने मानने से इंकार किया
प्रतिवाद का स्वर तेज किया
अमरबेल बने रहने को नकार दिया
तो उसे मारा गया, बांधा गया
प्यार, परिवार और संबंधों के नाम पर
रीती रिवाज़, समाज के नाम पर
मैं वहीं थी, मगर चुप-बिलकुल चुप
मैं भी उस अपराध में शामिल थी
क्यूँ की मैं चुप थी
ज़बान होते हुए भी
मैं बेजुवान थी
मैं भी अमरबेल थी,
मैं भी परजीवी थी
क्यूँ कि मैं, औरत थी
शायद निरीह औरत…
…सिद्धार्थ