औरत अण्री मर्द
डा० अरुण कुमार शास्त्री – एक अबोध बालक – अरुण अतृप्त
* औरत अण्री मर्द *
औरत की हदें
और मर्द की हदें
सब एक हैं
औरत की जिन्दगी
और मर्द की जिन्दगी
सब एक हैं
बस फर्क कहां पर आ गया
जब शारीरिक बल
का विषय उठा
सिर्फ इसी बात पर
मर्द ने औरत पर
अपना हक जता दिया
औरत की सौम्य्ता
ममता प्यार दुलार
सबको उसने स्वीकार किया
जब तक रही जरुरत भोगा
फिर उसी पर वार किया
निर्लज निष्ठुर निर्णय लेकर
औरत का अपमान किया
औरत ने फिर भी जग में
मर्द को माफ किया
हद हो गई तब तो देखो
जब
पता चली है कन्या
आने वाली जग में
घोर कष्ट देकर तब
उसने स्त्री जाति
का त्याग किया
पूजन योग्य
कन्या को तज के
गर्भ में ही
अस्वीकार किया
कुण्ठित बुद्धि के चलते
अपने ही वंश का नाश किया
बुद्धी खोई इन्सानियत खोई
अपना पराया सब बिसराया
मर्द जात को न जाने
ये कैसा पागलपन छाया
नारी को मजबूरी में
देना उसका साथ् पडा
अरे रहा जिद्द पर अडा
सिर पर खडा
जब तक ना उसने
अपनी नन्ही सी बेटी का
गर्भ के अन्दर ही
द्रवित हृदय से
न गर्भपात करा
मानव का रुप दिया किसने
किसने उसको पाला
अपने तन में
सब कुछ ही था भुला दिया
घोर पाप का भागी बन कर
कितना जघन्य अपराध किया
औरत की हदें
और मर्द की हदें
सब एक हैं
औरत की जिन्दगी
और मर्द की जिन्दगी
सब एक हैं
बस फर्क कहां पर आ गया
जब शारीरिक बल
का विषय उठा
सिर्फ इसी बात पर
मर्द ने औरत पर
अपना हक जता दिया