औरतें ज़िद नहीं कर पाती
औरतें ज़िद नहीं कर पाती
वैसे तो औरतों को बहुत जिद्दी माना गया है लेकिन मेरे ख्याल से एक मध्यम वर्गीय परिवार की औरतें ज़िद नहीं कर पाती।यही सोचते सोचते मैं ये लिख बैठी हूं
आप सब की राय जानना चाहूंगी
कुछ औरतें ज़िद नहीं कर पाती
जब मायके से ज़िद करके ली साड़ी सासूमां
नन्द को थमा देती है बिन पूछे।
वो ज़िद नहीं कर पाती।
या फिर
घर में सब की पसंद का खाना पूछ लिया जाता है
वो बोले भी तो , सासूमां कहेगी
“फिर कभी ,आज मुन्ना की पसंद मटर पनीर
बना दे।
वो नहीं कर पाती ज़िद
वो देर तक सोने की जिद भी नहीं कर पाती।
न ही कभी किसी रैस्टोरैंट में अपनी पसंद का
खाना आर्डर करने की।
हां पति और बच्चे मीनू पकड़ कर रहे हैं आर्डर।
वो फीकी सी मुस्कान से देखती रहती है।
कुछ औरतों का मन हो ,तो भी पानी पूरी और आलू टिक्की की जिद नहीं कर पाती।
ज़िद करना बहादुरी नहीं है लेकिन ज़िद न करना कायरता जरूर है
औरतें प्रैक्टिकल क्यों नहीं हो पाती।
सुरिंदर कौर