*औपचारिकता*
डा. अरुणकुमार शास्त्री – एक अबोध बालक अरुण अतृप्त
आदरणीय कह कर दूरी बना ली
असमन्जस की है परत चढा ली ||
प्रिय की प्रियता धूमिल हो गई
अपने पन की जब से विदा दी ||
मैं खोया था भ्रतित्व भजन में
सपन सलोना मन मे सजाये ||
लेकिन उसके इस आशय ने
सपनों की थी बलि चढा दी ||
चूरा चूरा खण्डित खण्डित
हिय का मेरे भाव वितंडित ||
औपचारिकता के एक शब्द ने
सद भावों की होली जला दी ||
सद भावों की तो होली जला दी ||
आदरणीय कह कर दूरी बना ली
असमन्जस की है परत चढा ली ||
भ्रमित भ्रमित से आचरणों से अब
खाली खाली मन है मेरा ||
द्रवित द्रवित सा कुण्ठित मानस
तिल तिल दहक रहा है मेरा ||
ऐसे कैसे जी पाऊँगा
अश्रु भरे क्या पी पाऊँगा ||
इस पीडा से मर जाऊंगा
सुधि ले लो अब मेरी ||
आदरणीय कह कर दूरी बना ली
असमन्जस की है परत चढा ली ||
औपचारिकता के एक शब्द ने
सद भावों की तो होली जला दी ||