ओ मेरे दाता तेरा शुक्रिया…
ओ मेरे दाता तेरा शुक्रिया,
तोहफा दिया अभाव का,
समझ सका मैं पाकर जिसको,
अच्छा क्या ? खराब क्या ?,
कैसी होती भूख पेट की ?
कैसे तड़पे पय बिन पूत ?
कैसे निर्धन के हिस्से में,
आती है बस केवल भूख ?
बुढ़िया क्यों घर की ड्योढ़ी पर,
रोती है यूँ जार जार ?
क्यों औषधि के लिए लाल,
उसका ही करता है इन्तजार ?
क्यों नहीं चिकित्सक करता है,
उपचार बिना अग्रिम धन के ?
क्यों दूजा खुदा बना फिरता,
जब नहीं दया, भीतर मन के ?
क्यों नंगे पाँव, खेत मिट्टी में,
ढूँढे किसान सुन्दर भविष्य ?
किन्तु न कुछ भी लगे हाथ,
हे दाता ! कैसा ये रहस्य ?
क्यों नहीं लगती हाय! देश की,
निष्ठुर नेता, नेतागीरी को ?
क्यों नहीं मिलता दण्ड,
रिश्वती अफसर, अफसरगीरी को ?
क्यों ये लम्पट, लहूकीट,
ले नाम जाति और मजहब का?
क्यों धन कुबेर के साथ रहें,
और चूसें खून गरीबों का ?
तब नहीं चाहिए ऐसी दौलत,
जो मुझको इन्सान न रहने दे,
सदां पाप कर्म के साथ रखे,
वन्दना तेरी ना करने दे ।
✍ – सुनील सुमन