ओ! प्राण प्यारे
विधान – 30 मात्रा = 16,14 पर यति, अंत में गुरु वाचिक अनिवार्य
आधार छंद – लावणी /ताटंक
ओ! प्राण प्यारे आज सारे,
पीड़ा हृदय की बोल दो।
अश्रु से सिंचित अंतर व्यथा,
हर वेदना को खोल दो।
रिक्त हुए एकाकी उर में,
ज्वाला तड़प है कौन सी।
श्वास में क्रंदन छुपाएँ,
घुटती रही क्यों मौन सी।
भरा हुआ अवसाद नयन में,
सिसक रही अगणित आहें।
सुलग रहें हैं प्राण तुम्हारे,
ढ़ूंढ़ रही किसकी बाहें।
काया मलिन मुक्त कुन्तल मुख,
पीड़ा की छाया घेरी।
पुलक-विकल हो तिमिर-शिखा पर,
हो विस्तृत व्यथा अँधेरी।
जो मुखरा कल अमल कमल था,
खिला खिला मुस्कान भरा।
मगर आज दुख दग्ध प्रपीड़ित,
उर टूटा अरमान भरा।
चुपके-चुपके सिसक रही हो,
अंतर बढ़ती ज्वाला में।
सारी संसृति की करुणा है,
दुख की विस्तृत लावा में।
क्यों हो खड़ी यूँ मूक बनकर,
अपनी पलकों को मूँदे।
दृग अंबर से गिर जाने दो,
अश्रुमयी जल की बूंँदे।
नैना-निर्झर, विरह-विकल मन,
कबसे राह निहार रही,।
अंतर आशा-दीप जलाये,
किस की सेज संवार रही।
हे मेरे मानस की करुणा,
बेकल उर की कोने में।
क्या कहूँ तुझे क्या सुख मिलता,
मुझको ऐसे रोने में।
जब जब याद सताती उनकी,
दुख दूना गंभीर हुआ।
विरह व्यथा है बड़ा भयानक,
जग बैरी शमशीर हुआ।
उगे न चंदा जले न बाती,
गहन अमावस भटक रही।
ध्यान लगा रहता है उनपर,
शंकित नजरें अटक रही।
मत पूछो मन की व्यथा मुझे,
दग्ध हृदय है सीने में।
विरह वेदना व्याकुल उर में,
खाक मजा है जीने में।
-लक्ष्मी सिंह
नई दिल्ली