ओ अजनबी…
ओ अजनबी
क्या तुम सचमुच अजनबी हो?
वक्त-बेवक्त आ जाते हो ख्यालों में
फिर भी कहते हो कि तुम अजनबी हो.
सावन की फुहारों में साथ रहते हो,
बहती आँखों से आँसू पोछते हो,
साथ मेरे अपनी भी नींद खोते हो,
जेठ की दुपहरी में जब
आसमान से अंगारे बरसते हैं,
छाँव बनकर सामने आ जाते हो.
फिर भी कहते हो कि तुम अजनबी हो.
साथ जीने के सपने देखते हो,
तस्वीर मेरी सदा अपने साथ रखते हो,
मेरे लिखे गीतों को गुनगुनाते हो,
बिन किये वादा निभाते हो,
जान ना जाये दुनिया रिश्ता अपना,
सपनों में मिलने आते हो.
फिर भी कहते हो कि तुम अजनबी हो.
जब भीड़ में तन्हा हो जाते हैं,
अपनों में खुद को तलाशते हैं,
वक्त-बेवक्त आँसू आते हैं,
ख्वाब बिखरने लगते हैं,
मरुस्थल में नंगे पैर चलने पर
तुम चुपके से आकर मुझे
अपनी बाँहों का सहारा देते हो.
फिर भी कहते हो कि तुम अजनबी हो.
©® आरती लोहनी….