ओह भिया क्या खाओगे ?
![](https://cdn.sahityapedia.com/images/post/a06622e7f066341588334a3a93017968_9c775022c343b0aea8919d5f66818bd8_600.jpg)
आजकल फ़ूड ब्लॉगिंग,
बड़ी हैं शुमार।
हर कोई इसके मोह में,
गिरने को हैं तैयार।।
मैंने भी सोचा,
कुछ तूफानी कर आये।
Poem के संग,
थोड़ी फ़ूड ब्लॉगिंग कर आये।।
तो भिया,
हम हुए तैयार,
पेन और पेपर के साथ,
कैमरा भी ले आये उधार।।
इंदौर में तो,
हर कोने में हैं खाने को।
तो सोचा,
नया शहर दिखाए ज़माने को ।।
तो पहुंचे हम,
खाना ढूंढने दिल्ली एनसीआर।।
कैमरा ऑन कर,
मैं काउंटर पर देख बोला पोहे।
वो मुझे ऊपर से नीचे तक देख,
चिढ़ते हुए बोला ओये।।
ये दिल्ली हैं,
दिलवालो की।
यहाँ लगाती हैं लाइन,
परांठे, कुलचे खाने वालो की ।।
यहाँ नहीं मिलते,
कोई तुम्हारे पोये-वोये।
चाहे कितना भी करलो,
कैमरे पर ओये-होये ।।
मन सहम रहा था,
पोहा, उसल, कचोरी और समोसा की याद में।
कैसे भरेगा पेट,
था इसी फ़रियाद में ।।
तभी दोस्त बोला,
आज पोहा बना हैं कॉलेज की मेस पे।
चलो फिर क्यों इंतज़ार,
मैं बोला लेकर बड़ी सी स्माइल फेस पे ।।
सोचा की
पोहे पर टूट पड़ूंगा।
जैसे ही पोहा आया प्लेट में,
हसरतें ही टूट गयी ।।
ये क्या हैं,
पोहे के नाम को किया ख़ाक।
टमाटर,मुमफली, प्याज़ का बघार,
और सर्व करते टाइम लाल और हरी चटनी देने का मजाक ।।
ऐसे पोहे,
कौन खाता हैं।
क्या इन लोगो को,
पोहे बनाने का सलीका नहीं आता हैं ।।
तभी देखा,
पास के फ़ूड स्टाल पे गरम समोसे निकल रहे।
उसे देख सोचा ये ही खा लेते हैं,
क्यूंकि पेट में भूख से चूहे उछल रहे ।।
जैसे ही मुँह में गया,
समोसे का एक बाईट।
खाने की उम्मीदों की,
दिल्ली में कट गयी थी काइट ।।
फिर मन किया,
चलो यही का स्पेशल कुछ खाये।
इसी बहाने हम,
चांदनी चौक की परांठे वाली गली घूम आये ।।
क्या माहौल था,
परांठे वाली गली का।
दो चीजें थी लम्बी,
एक परांठो की लिस्ट,
और दूसरा लाइन खानो वालो की।।
बड़ी वेटिंग के बाद,
हमारा नंबर आया।।
आर्डर लेकर,
वो परांठा ले आया।।
मैंने थाली को देखा,
पूड़ी, सब्जी, चटनी और सलाद था साथ में।
मैंने पूछा,
परांठे तो लाओ इस पूड़ी के साथ में।।
वो बोला,
यही हैं परांठा।
मन बोला,
ये तो मैं नहीं खाता।।
पर क्या करें,
भूख के आगे कुछ समझ ना आया।
मन मसोस कर वो,
सो कॉल्ड फेमस पूड़ी वाला परांठा खाया ।।
ये क्या,
अब तो जेब भी काट ली।
पूड़ी के नाम पर,
200 की बिल फाड़ ली ।।
फ़ूड ब्लॉगिंग का कीड़ा,
अब चुप हो गया था।
मेट्रो ट्रैन पकड़,
मैं भी घर को हो लिया था।।
घर पर आकर भी,
पेट को ना थी संतुष्टि।
बैग से फिर निकाली,
अपनी इन्दोरी सेंव और नुक्ती ।।
खाकर उसे चेहरे पर थी एक मस्त वाली मुस्कान,
आखिर यही तो हैं एक इंदौरी की पहचान ।।
डॉ. महेश कुमावत