ओस सा मोह
दिन के पीछे दवे पांव आती सांझ
जब रात का राज्याभिषेक करती है…
तब…तब सब कुछ
सहम जाता है…
अपने पद के मद में चूर,
अंधेरा भय और आतंक का
तांडव मचाता है…
भूल कर उन
तमाम रातों का हश्र,
जो उसकी तरह
ताज पहन कर आई थीं….
और खो गईं
काल के आगोश में ।
तभी अचानक…. वहीं
उसको हंसते हुए मिल जाता
प्रभात का आलोक…
आंखें मलते, धीरे से बोलता
तुम्हारा राज़ अब खत्म हुआ…
जब सब है
छत पर पड़ी ओस सा
तो कैसा मोह
और किसका अभिमान ।।