ओस की बूंदें
******* ओस की बूंदें ********
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जमीं पर जमी है ओस की बूंदें,
निर्मल निश्छल हैं ओस की बूंदें।
नभ से गिरी हैं बनकर सी मोती,
दूषण से बड़ी दूर हैं ओस की बूंदें।
रजत की चादर बखेरी है धरा पर,
आइने सी सुथरी हैं ओस की बूंदें।
उठो बिस्तर से देख नजरें घुमाकर,
आँचल में बुलाती हैं ओस की बूंदें।
चुपके से टपकी बिना शोर-शराबे,
नितांत रोग रहित हैं ओस की बूंदें।
देखे जो उनको वो देखता ही जाए,
सौंदर्य से लुभाती हैं ओस की बूंदें।
झलक से झट झपकती हैं पलकें,
मंदिर मस्ज़िद सी हैं ओस की बूंदें।
मनसीरत मन को शांत कर देती हैं,
फ़लक़ से उतरती हैं ओस की बूंदे।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)