“ऐ पथिक तू संभल जरा”
“ऐ पथिक संभल जरा”
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ऐ पथिक तू संभल जरा,
तू सोचता क्या,खड़ा-खड़ा;
उधर भी जरा नजर दौड़ा,
की कौन कहां, कैसे मरा।
ऐ पथिक तू संभल जरा…..
मत बन, तू उतना ज्यादा बड़ा;
घमंड में तू, क्यों इतना अड़ा;
रहेगा सब धरा पे, धरा का धरा;
जब सामने होगा तेरे ,”यम” खड़ा।
ऐ पथिक तू संभल जरा…….
जब, सबका ही अंत निश्चित है,
फिर भी तू, क्यों इतना चिंतित है;
मानव जन्म के खुशियों से वंचित है,
सबका समय तो पहले से संचित है।
ऐ पथिक तू संभल जरा……..
कर्म से तू, कल्याणकारी बन;
कभी न तू, यों अहंकारी बन,
गैरों के लिए, परोपकारी बन;
सदा अब तू, सदाचारी बन।
ऐ पथिक तू संभल जरा……
जन हो, जन का न अहित सोच,
अच्छा-बुरा दिन सबका आता है,
तू सिर्फ, औरों का ही हित सोच,
एक दिन तू भी, मंजिल पाएगा।
ऐ पथिक तू संभल जरा……….
कौन है बड़ा, कौन है छोटा;
भला कौन हारा कौन जीता,
जानना तुझे, अगर है यही;
जा, तू पढ़ ले अब भी गीता।
ऐ पथिक तू संभल जरा……
स्वरचित सह मौलिक
……✍️”पंकज कर्ण
…………..कटिहार।।