ऐ ज़िन्दगी, तूने बनाया ही कितना रूप है
ऐ ज़िंदगी , तूने तो बनाया ही कितना रूप है,
कैसे-कैसे रंग अब तक मुझको दिखाती रही।
समझ आया नहीं मुझको तेरा ये फ़लसफ़ा,
किसी को दिया बहुत, किसी को रुलाती रही।
चाहा मैंने तो यही कि कस के तुझको थाम लूँ,
और तू हर पल मुट्ठी से रेत सी फिसलती रही।
तुझसे न मिल पाने का इल्ज़ाम किसके सर मढ़ूँ
मुझको तो हर बार ख़ुद मेरी हसरतें ठगती रहीं।