जलाया करता हूँ,
ऐसे ज़माने को जलाया करता हूँ,
मैं चाँद को छत पे बुलाया करता हूँ।
जब बात आती है बरसने की सुनो,
मैं शर्त बादलों से लगाया करता हूँ।
ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ पर लिखी थी जो कभी,
मैं वो ग़ज़ल सबको सुनाया करता हूँ।
गहराई उसकी आँखों की करके बयां,
मैं शीशा दरिया को दिखाया करता हूँ।
अब मय-कशी में भी सुकुन आता नहीं,
मैं आग पानी से बुझाया करता हूँ।
जो तू हकीकत में नहीं मेरा सनम,
मैं राज़ यह सब से छुपाया करता हूँ।
© अभिषेक पाण्डेय अभि