ऐसे कैसे चला जाऊं मैं
हर सुबह अखबार में पढ़ते हुए
मौत की अनगिनत खबरें
डर-सा लगा रहता है इन दिनों
घर की खिड़की से देखता हूं
जब गली से गुजरते लोगों को तो मन करता है
आवाज देकर बुला लूं उन्हें
बांट लूं उनसे थोड़े सुख-दुख और
गले लगाकर विदा करूं उन्हें
क्या पता उनमें से आज के बाद
कोई फिर दुबारा न दिखे
या शायद मैं ही नहीं रहूं किसी दिन
मौत की इस आपाधापी के बीच
क्या मुझे मिल नहीं लेना चाहिए
उन सबसे जिन्हें जीवन के
किसी न किसी दौर में मैंने प्यार किया था
अपने तमाम दोस्तों और दुश्मनों से भी
मेरे भीतर जिनका हिस्सा रहा है
और यहां तक कि उनसे भी
जिन्हें जानना शेष रह गया जीवन में
मुझे जीवन का मोह नहीं
मगर मैं ऐसे कैसे चला जाऊं
उन सभी से मिले
और उन्हें अलविदा कहे बगैर !
ध्रुव गुप्त