तुम्हारी प्रीत में
अचल गिरि के अंक से
मचलकर निकल पड़ा
एक कृष तनु निर्झर
खोह कंदराओं से
हो प्रवाहित
निश्छल शिशु सा
अपने में मस्त
निश्चिंत अल्हड़ हो
ऊंचे – नीचे पथ कंटको
के मध्य
लघु , विशाल प्रस्तरों से
गलबहियां करता
कल – कल रव से
कानन कर्ण में
मृदुमय मोद से
चर – अचर को
आल्हादित करता
तृण , पादप से
अठखेलियां करता
जा पहुंचा
तरंगिनि तीर पर
शांत सलिला
स्वयं मुग्धा
तरंगिनि को निरख
उस पर वार गया
स्वयं हार गया
और प्रकट कर दी
उसके समक्ष अपने हृदय की चाह
मिलना चाहता हूं मैं
तुममें सदा के लिए
भा गया है मुझे तुम्हारा
शांत, सरल , गंभीर , प्रवाह
एकाकार हो जाना चाहता हूं मैं
तुम्हारी प्रीत में ।
तरंगिनि ने विहंस हो कहा
इतनी प्रीत है मुझसे
मेरी प्रीत तुमसे मूल्य चाहेगी
दे सकोगे
अपना समूचा अस्तित्व खो सकोगे ।
निर्झर मुग्ध था
सरित प्रवाह से
बोला –
सरिता , एकाकार होकर भी
मैं अविरल मिलता रहूंगा तुझमें
मधुर शीतल जल लिए ।
फिर तुम्हारा शांत गम्भीर
और मेरा मृदु नीर
मिल संग- संग
प्रवाहित हुआ करेंगे
तृषित धरा और जन की तृषा हरेंगे
अपनी समर्पित प्रीत की
अनकही कथा
अपने हृदय में ही धरेंगे।
अशोक सोनी
भिलाई ।