ऐसी भी बरसात होती गर कोई
ऐसी भी बरसात होती गर कोई
टूट कर बरसे कहीं अम्बर कोई
खामुशी ने शोर इतना कर दिया
रह न पाया फिर मेरे अंदर कोई
पूछना था आपसे ये इक सवाल
कैसे रहते हैं न जिनका घर कोई
झूठ इतना बोलता है आदमी
पैर होते हैं न इसका सर कोई
हम मज़े से जी रहें हैं ज़िंदगी
देख ले हमको कभी आकर कोई
आदमी है एक चेहरे दो मगर
झूठ बोले सामने हँस कर कोई
ये सियासत मार डालेगी हमें
बन गया अपना ही हमलावर कोई
तिश्नगी जो देख ली उन आँखों में
प्यास से ही मर गया ‘सागर’ कोई