ऐसी देखी बरसात
जब मैंने आकाश की ओर देखा, बादल गहरा रहे थे ।
प्रभात की बेला,रात्रि की कालिमा में बदल रही थी …
वसुधा पथराई अंखियों, सूखे अधरों से आसमाँ तक रही थी।
जैसे कोई प्रियसी पिया मिलन को तरस रही थी !
पेड़-पौधे खिलने से पहले ही दुबक रहे थे ।
गिरी एक बूँद ज़मी पर,
बूँद नहीं, उम्मीद किरण की ।
धरा भी ऐसे कप-कपाई, मानो युगों बाद मिलन की बेला आई …..
धानी चुनर फिर से लहराई , चारों ओर हरियाली छाई ।
दो पहर मात्र थे गुज़रे ,
संध्या की लालिमा लिए इंद्रधनुष को देखा ।
पुलकित कलियों पर भ्रमर को गुँजार करते देखा ।
मिट्टी की सौंधी-सौंधी खुशबू का समीर संग विलय देखा।
रसोई में तलते पकौड़े की सुगंध से,
मुँह से लार टपकते देखा ।
बच्चों की नन्हीं टोली को,
कागज़ की नाव चलाते देखा ।
बरसात के मौसम में प्रकृति को रंग बदलते देखा ।
करोना के डर से चार दिवारी में छिपे लोगों को ,
पहली बारिश में निकलते देखा ।
टिप-टिप गिरती बूँद को हथेलियों में सहेजते देखा ।
बरसात के मौसम में नित नवीन परिवर्तन देखे ….
नित नवीन परिवर्तन देखे …
अल्फ़ाज़ों की कमी में काव्य के समापन को देखा ।
इससे आगे क्या लिखूँ ,
असमंजस में पड़े अपने मन को देखा ….