ए खुदा…
क्या करू दर्दे दिल की बयॉ…
तुने तो रहम भी नही की जरा सी..
अगर सिकायत करू भी तो करू क्या
जख्म भी दिये है तुने बडी इनायत से.
तेरी है ज़मी तेरा ही फलक है..
फिर इंसान और इंसान मे क्यो इतना फर्क है…
तू चाहे तो बादल खुल के हंसता है
तू चाहे तो ज़मी जर्जर हो जाती है
तेरे बनाये खिलौने आज तूझसे ही खेलते है
तूझे रिस्वत देकर पैसो से तौलते है
सुना है तू मेहरबान होता है रहीसो पर.तूझे मैं भी तो जानू कभी करम कर गरीबो पर…….
मुकद्दर बनाने वाले मुकद्दर मे कुछ तो लिखा होता
तेरे अनेक रूप है.. किसी को तो ज़मी पर उतारा होता….$