एहसास
अनिश्चित जिंदगी का निश्चित अंश था वह
मेरे अपने होने का,
संपूर्णता का आभास था वह.
क्या हुआ जो आज वह धुआँ-धुआँ सा हो गया
गुजर गया दिलों के तार तोड़ कर,
स्तब्ध सा.
अब न कदमों की आहट होगी,
ना उखड़ती साँसे
न वह प्यार भरा स्पंदन.
बस एक एहसास
दीवारों से टकराकर लौटती निगाहों का
और अपनी रिक्तता का.
धधकती ,चटखती चिंगारियों में जॅब्ज होता,
न स्वतः का; न कर्म का बोध
बस सत्य और केवल सत्य साथ है
एक नाद है,
प्रवाह है
पुनः बिस्तार है.
@ अनिल कुमार श्रीवास्तव