एहसास को समझूँ
मेरे घर पर आज छत है
इसे मेँ देव की देन समझूँ
जिसके ऊपर उपकार नहीँ
उसके आज हर एहसास को समझूँ
कोई तन पर बिखरे पसीने को पोछेँ
कोई तन पर मेहनत का रंग चढ़ाता है
भीषण तप मेँ रहकर भी कोई
मुस्कराना दर्द को छिपाकर जानता है
किसी को कड़ी धूप भी छत लगे
कोई उसी छत को मंजर मानता है
कोई नंगे पाँवो से राहेँ बनाये
तो कोई चादर की सड़क माँगता है
कोई पानी को हवाओँ की तरह
खुले हाथोँ से बह जाने देता है
कोइ एक बूँद को साँसो की तरह
अपने गले मेँ उतार लेना चाहता है
साथियोँ को साथ लेकर
कोई मगन शाम की मस्ती मे डूबता है
कोई सूखे मुँह से किसी के इँतजार मेँ
अपनी शाम को किस्मत के नाम करता है
कोई किताबोँ को हवा उछाल
केद की चँद लकीरेँ समझता है
कोई एक अक्षर पढ़ने के लिए भी
अपनी बेबसी से नजरेँ चुराता है
यूँ ही इसी तरह कई सवाल उठकर
खामोशियो मेँ दबे कहीँ जवाब ठहरेँ हैँ
चलो अब नजरिये को थाम इस एहसास को समझेँ
जिस पर छाया की मेहर नहीँ
उस पर बरसे हर वार कितने है?