एक ग़ज़ल की शक्ल में कलम घिसाई
एक ग़ज़ल शक्ल में कलम घिसाई
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मतला
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कदमो में हिन्द के अब महताब देखता हूँ।
सारी जमी हो अपनी यह ख़ाब देखता हूँ।
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कोई नही है सानी मैं हिन्द का बता दूँ।
मैं रोल इंडिया का,नायाब देखता हूँ।
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नापाक वाले देखो ,सर को खुजा रहे है।
घुटनो के दम पे उनका आदाब देखता हूँ।
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धारा हटी जो सत्तर,जी भर के रो रहा है।
अश्को भरे रुदन का, सैलाब देखता हूँ।
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है बर्फ से भी शीतल,ऊपर से तो वो यारो।
लेकिन भरा जो अन्दर ,तेजाब देखता हूँ।
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दुनियाँ में जिसने जाकर,इक खलबली मचा दी।
भारत की जो है ताकत ,असबाब देखता हूँ।
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बिखरा है ज़र्रा ज़र्रा ,चारो तरफ तुम्हारे।
सिमटे नही जो तुमसे,सीमाब देखता हूँ।
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हैं चीन के जो जूते, अच्छे तुझे क्यूँ लगते।
इनमे फ़टे पुराने जुर्राब देखता हूँ।
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मक़्ता
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‘मधु’ गिर गये है प्यारे,जो थे विकेट सारे।
हाथों में मेरे अब में ,अलक़ाब देखता हूँ।
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कलम घिसाई
अलक़ाब — ट्रॉफी ख़िताब
सीमाब – पारा
असबाब — माल,ताकत
सहायक धुन— हो रात के मुसाफिर