मुहब्बत की किताब
मैं सुबह-सुबह मुहब्बत की
किताब लिखने बैठ गया
ख़्वाब में उसका ख़त आया
ज़वाब लिखने बैठ गया…
(१)
उसके सुर्खी से भरे हुए
गोरे-गोरे से मुखड़े को
शबनम में नहाया हुआ
गुलाब लिखने बैठ गया…
(२)
कल शाम को टहल रही थी
कैसे वह अपने छत पर
उसका हर एक दिल-फ़रेब
अंदाज़ लिखने बैठ गया…
(३)
उसकी शोख़ ग़ज़ल सुन कर
उभरे जो मेरे रग-रग में
उन जादूई जज़्बों का
हिसाब लिखने बैठ गया…
(४)
जो उसने मुझे पिलाई थी
अपनी नशीली आंखों से
उसको एक रूह-अफ़ज़ा
शराब लिखने बैठ गया…
(५)
उसकी बदौलत मेरा ज़ेहन
कुछ इस तरह हुआ रोशन
उसको अपने ख़्यालों का
एक चांद लिखने बैठ गया…
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Shekhar Chandra Mitra
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