एक हमारे मन के भीतर
गीत
एक हमारे मन के भीतर
मन रहता है
बोलो बोलो कुछ भी बोलो
सच कहता है
कितना पानी, कितना सागर
सब जाने है
डूबे हम तुम कहां कहां पर
पहचाने है
बाहर भीतर बजती सांकल
डर लगता है
एक हमारे मन के भीतर
मन रहता है।
चांदी लगा वर्क सा जीवन
कितना सच्चा
पचा नहीं जो, ना ही उगला
कितना अच्छा
रोज रोज खाते हैं गच्चे
सर लगता है
एक हमारे मन के भीतर
मन रहता है
मृगतृष्णा सी प्यास लबों पर
कैसी पीड़ा
आखेटी व्यवहार कुशल है
कैसी नीरा
दर्पण में जब मुख को देखें
खर लगता है
एक हमारे मन के भीतर
मन रहता है।
सूर्यकांत