एक स्वप्न तुम्हारे साथ का
शरद पूर्णिमा का चाँद अपनी सोलहों कलाओं के साथ आकाश के मध्य में विराजमान था। पूरी धरा पर अमृत-रस की वर्षा के साथ शरद ऋतु का आरम्भ हो रहा था। गंगा की लहरों में चंद्रमा का वो प्रतिबिम्ब, मन को लुभा रहे थे। और इसी मनोरम दृश्य में तुम मेरे बगल में, मेरे कांधे पर सर रखे गंगा-जल से खेल रही थी।
श्री, भू, कीर्ति, इला, लीला, कांति, विद्या, विमला, उत्कर्शिनी, ज्ञान, क्रिया, योग, प्रहवि, सत्य, इसना और अनुग्रह। ये सोलहों कलाएं सिर्फ चंद्रमा में ही नहीं बल्कि तुममे भी विद्यमान थीं। चंद्रमा ने मानो अपनी सोलहों कलाओं को तुम्हें उपहार स्वरुप दिया हो। वो कमर तक काले बाल तुम्हारे, अगर खोल दो तो ये पूर्णिमा का चाँद भी कहीं खो जाए उनमें। वो ख़ूबसूरत हिरनी जैसी आँखें और उनमें हल्की-सी कजरे की धार। चार चाँद लगा रहे थे तुम्हारी खूबसूरती पर। अब भी याद है मुझे वो मधुर पल जब तुम काँधे से सर उठा कर मुझसे बात करके मुस्कुराती यूँ लगता की इससे अच्छा और कोई दृश्य ही नहीं दुनिया में। मैं तुम्हारे चेहरे की मासूमियत को अपने लब्ज़ों में ढालने का प्रयास करता। मेरे मासूम से इस असफल प्रयास पर जब तुम हँसती तो तुम्हारे कान के बाले भी मेरे मन की तरह पुलकित हो उठते। वो पल जब तुम सारी दुनिया भूल कर बस मेरी ही हुई बैठी थी उस पल को मैं कभी नहीं भूल सकूँगा। तुम्हारी उन मधुर बातों ने मेरे मन की विरह-अग्नि को बिल्कुल शान्त कर दी। मेरे मन में मानो प्यार का सैलाब उमड़ आया। जैसे गंगा की अविरल धारा मेरे सामने बह रही थी ठीक वैसी ही अविरल प्रेम की धारा मेरे मन में भी बहने लगी। जैसे पूर्णिमा का वो चाँद पुरे जग को शीतलता दे रहा था ठीक वैसे ही वर्षों से विरह-अग्नि में जले मेरे मन को शीतलता दी तुम्हारी उन प्रेम-पूर्ण बातों ने।तुम उठी ये कह कर कि-“अब बिरहा-अग्नि में जलने की जरुरत नहीं। मैंने ये निर्णय कर लिया है कि अब हम एक होंगें।” मैं भी उठा तुमने आलिंगन करना चाहा।
मेरी आँख खुल गयी मैं अपने बिस्तर पर लेटा मुस्कुरा रहा था।बड़ी मुश्किल से समझ पाया की ये एक स्वप्न था।
एक स्वप्न तुम्हारे साथ का।
-अनुपम राय’कौशिक’