एक सुबह-दिल्ली में
दरयागंज की चाय की दुकान पर
सुबह भीड़ में, कोने में, दुबके व्यक्ति के लिए
एक कुल्हड़ चाय लिए
उसके समक्ष खड़ा था
विकट ठंड थी, नंगे पैर और एक कंबल
थोड़ा चेहरा उठा देखा
और चाय का कुल्हड़ ले लिया।
शीतशोथ से ग्रसित मानव
एक ही घूंट मे चाय पी गया
मैने दूसरा पकड़ा दिया
अब वह धीरे – धीरे पी रहा था।
मैं मिलान कर रहा था उसकी
बिवाइयों और झुर्रियों को
रिस तो दोनो रहीं थीं
एक फटकर तो दूसरी सिकुड़कर।
निश्चय -अनिश्चय की अवस्था
मूक, मेरी ओर उठी
उसकी संकुचित दृष्टि कुछ न कह सकीं
चल पड़ा जामा मस्जिद की ओर।।