एक सवाल
सरे राह चलते चलते,
धरती से मुलाकात हो गई।
मुस्कुराहट जो देखी उसकी,
तो सवालों को बरसात हो गई ।।
सहती हो तुम पूरी दुनिया का बोझ,
क्यों आह भी भरती नहीं हो,
चीरते हैं सब तुम्हारा सीना,
तुम, उन्हीं के लिए अन्न उगाती हो ?
धरती की मुस्कुराहट रही बरकरार,
सहजता से कुछ यूं वह बोली।
तुम जानते नहीं ब्रह्माण्ड का रहस्य,
या कर रहे हो मुझ से ठिठोली ?
विधी ने लिखा है अनूठा विधान,
धरती और नारी को बनाया एक समान ।
श्रध्दा और पुरुषार्थ की दी जिम्मेदारी,
कहा, सहजता की मूर्त हो, बनो प्रतिहारी ।।
जननी बन देती हूँ जीवन को जन्म,
बोझ बच्चों का भारी लगता नहीं।
न सहूं सीना चीर की पीड़ा को,
तो पालन हेतु अन्न उगता नहीं।
कुछ सोच समझ कर ही,
विधी ने नर से बडी बनाई नारी।
न रच पाए ब्रह्मा अकेले सृष्टि,
तो विधाता ने फिर रचि नारी ।।
स्त्रीलिंग को बनाया पुल्लिंग का आधार,
बिना उसके नहीं बन पाता है संसार ।
धरा बिना अन्न, नींव बिना भवन,
जननी बिना नहीं संभव जीवन,
फिर बोझ और पीड़ा का कहां रह जाता है प्रश्न॥
सुनकर धरती की यह गहरी बात,
हर गयी मैं एकदम – दंग ।
लगी सोचने हर तरह से बारम्बार,
इस बात का हर तह में है कितना दम ।।
फिर भी एक सवाल कुलबुलाने लगा,
मन मस्तिष्क पर हथौड़े बजाने लगा।
क्यों नहीं कर पाते इस तथ्य को स्वीकार?
झुठ्ला कर उसे करते हैं नारी पर अत्याचार।
मां के गर्भ से जन्म लेने से पहले ही,
हर तरह से मिटा देना चाहते हैं उसका अस्तित्व
क्यों ? – क्यों ? – क्यों? आखिर क्यों?
सवालों की फुहार में ढूंढती रहती हूँ जवाब ।
टक्कर मार कर भी नहीं सूझता कोई उत्तर
इसीलिए पूछ रही इं आपसे बारम्बार। ।
—–*******—————-