एक संवाद
ये अक्स कुछ याद दिलाता है, बीते दिनों से संवाद कराता है।
चेहरा तो वही है पर, आँखों में स्याह उतर आता है।
लहरों पे बढ़ती नाव को, पीछे छूटे किनारों की याद दिलाता है।
कभी बंधे थे जिस डोर से, उसके टूटने की आवाज़ सुनाता है।
पहले इक घर हुआ करता था, आज दो से पहचान कराता है।
तू माँ को पास रख, मैं पिता को, ऐसे वियोग दिखाता है।
पिता की लाचारी और माँ के अश्रुओं से, खुद को पृथक कर जाता है।
ये जीवन ना जाने कैसे – कैसे संजोग कराता है।
आंगन में दीवार बना इक घर, को दो टुकड़ों में बांट जाता है।
बचपन की यादों को ना जाने कैसे धूमिल कर जाता है।
माता-पिता-विहीन इस मकान का खालीपन, अब सताता है।
खुद से किया संवाद आज, खुद को ही दोषी बताता हैं।